
नर्मदापुरम बनखेड़ी पिपरिया नरसिंहपुर लोकसभा चुनाव के बीच क्या इस बार लोकसभा चुनाव ऐसे ही नीरस रहेगा? ये सवाल क्षेत्र की फिज़ाओ में तैरने लगा हैं। राजनीतिक ठिये-ठिकानों पर ही नही, जनसामान्य के बीच भी ये चर्चा तेज है कि क्षेत्र में तो लग ही नही रहा कि देश का सबसे बड़ा चुनाव चल रहा हैं। ये हक़ीक़त भी हैं। दोनों प्रमुख दल तमाम कोशिशों के बाद भी माहौल में चुनावी गर्मी नही भर पाए हैं। कांग्रेस विधानसभा के हिसाब से सम्मेलन कर जरूर रही है लेकिन कार्यकर्ताओं में जोश नही फूंक पा रही हैं। तैयारियों के लिहाज से कांग्रेस से मीलो आगे चल रही भाजपा के सूरते हाल भी कांग्रेस से कम नही हैं। पार्टी के मुखयमत्री का दौरा भी केडर में चुनावी गर्मी नही भर पाया हैं। महज महीनाभर शेष हैं। 26 अप्रेल को वोट डल जाएंगे लेकिन शहर में लग ही नही रहा कि अहम मिशन 2024 मुहाने पर हैं। मिशन 2023 की तुलना में ये सन्नाटा कुछ ज्यादा ही गहरा हैं।
*अब तक त्यौहारों का दौर चल रहा था तो लग रहा था कि इस कारण शहर में चुनाव नजर नही आ रहा है लेकिन उत्सवों के बिदा होने के बाद भी हाल वही हैं-सन्नाटा। कांग्रेस का तो फिर भी समझ आता है कि वहां मची भगदड़ ने पार्टी नेताओं और वर्कर्स का मनोबल तोड़ रखा हैं लेकिन भाजपा में सब तरफ पसरी खामोशी समझ से परे हैं। चुनाव को लेकर कोर कमेटी नियमित बैठके कर रही हैं। विभिन्न क्लस्टर भी रणनीतिक तैयारी कर रहें हैं। पार्टी कार्यालय पर कभी जिले तो कभी संभाग स्तर की बैठकें भी हो रही है लेकिन चुनावी माहौल बन ही नही पा रहा हैं। यहाँ तक कि पार्टी के नेता नर्मदापुरम में आकर रवाना हो गए लेकिन कही कोई हलचल नहीँ हुई। जबकि उनका यह प्रवास शुद्ध चुनावी था। उन्होंने न केवल नर्मदापुरम बल्कि इस संभाग से जुड़ी अन्य संसदीय सीटों के लिए रणनीतिक बैठक की लेकिन वे भी माहौल की सुस्ती दूर नहीँ कर पाए और न उनकी बैठक से कुछ ऐसा निकलकर सामने आया जो मिशन 2024 के लिए सम्भाग स्तर पर ही सही, अहम हो। सिवाय इस बात के कि अति आत्मविश्वास से बचने की नसीहत के।*
अब भाजपा चुनावी माहौल में गर्मी पैदा करने की एक और कोशिश कल यानी 6 अप्रैल को करने जा रही हैं। 6 अप्रैल को पार्टी का स्थापना दिवस है और तय हुआ है कि ये दिन प्रदेश के हर बूथ पर मनाया जाएगा। करीब 60-62 हजार बूथ पर स्थापना दिवस के जरिये पार्टी अपने केडर को चार्ज करने की कोशिश करेगी। उत्साह बढ़ाने के लिए ये भी दांवा किया गया है कि 6 अप्रैल को 1 लाख लोगों को भाजपा में शामिल करेंगे। पार्टी कार्यकर्ताओं को भी इशारे मिले है कि वे बूथों पर अब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भाजपा की सदस्यता दिलवाए। यानी भाजपा अब कांग्रेस के नेताओ के बाद उनके कार्यकर्ताओं को भी निशाने पर ले रही हैं। ये काम 6 अप्रैल को श्रेत्र के भी करीब 2 हजार बूथों पर होना हैं।
*क्या तयशुदा परिणाम से कांग्रेस में नीरसता?*
*न नेताओ में उत्साह नजर आ रहा है, न कार्यकर्ताओं में जोश। दोनों दल बस चुनावी औपचारिकता निभाते नजर आ रहें हैं। भाजपा में जहां बैठकों की रस्मअदायगी चल रही है तो कांग्रेस में विधानसभावार कार्यकर्ता सम्मेलन अब जाकर शुरू हुए हैं। ऐसा क्षेत्र में कभी नही हुआ। खासकर लोकसभा चुनाव में तो कतई ही नही। जो शहर प्रदेश की राजनीतिक का सेंटर माना जाता है, वहां इस तरह का सन्नाटा सबको हैरत में डाल रहा हैं। तो क्या ये सन्नाटा तयशुदा हो चुके चुनावी परिणाम के कारण पसरा हुआ हैं? इस सवाल का मुक्कमल जवाब अभी तलाशा जा रहा है लेकिन एक्सपर्ट की माने तो ये ही एकमात्र कारण है जो दोनों दलों में चुनावी गर्मी पैदा करने में आड़े आ रहा हैं। भाजपा में जहां मुकाबला वोटिंग के पहले ही जीता हुआ माना जा रहा हैं तो कांग्रेस में भी चमत्कार की उम्मीदें लगभग शून्य ही हैं। ये हालात कांग्रेस की स्थानीय दुर्दशा के कारण निर्मित हुए हैं। लिहाज़ा मिशन 2023 में बुरी तरह मात खाने के बाद अब पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में फिर उठ खड़े होने का जज़्बा पैदा ही नही हो रहा न ऐसे कोई हालात दूर दूर तक नजर आ रहे है कि कांग्रेस का सिपाही सड़क पर पसीना बहाने निकल जाए। पार्टी का कैंडिडेट जरूर युवा व मुखर है लेकिन उस पर भी अपने ही दल में ” धनपति” के आरोप चस्पा हो गए। लिहाजा औसत कार्यकर्ता फिर स्वयम को ठगा महसूस कर रहा हैं। बड़े नेता जरूर “लोकलाज” के डर से अपने उम्मीदवार के संग नजर आ रहे है लेकिन जमीनी व निष्ठावान कार्यकर्ता अब तक तो रुष्ट ही नजर आ रहा हैं।*
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*भाजपा में नीरसता का कारण उम्मीदवार?*
*जोश औऱ जुनून का नितांत अभाव तो भाजपा में भी नजर आ रहा हैं। यहां जीत तय मानी जा रही है। लिहाज़ा पार्टी केडर वैसा जुनूनी नजर नही आ रहा जैसा हालिया विधानसभा चुनाव के वक्त था। बचा काम शीर्ष नेतृव ने पूरा कर दिया सघ विरोधी सांसद देकर। भाजपा में केंडिडेट अगर बदलता तो जरूर कुछ उत्साह नजर आता। मोजूदा प्रत्याशी से पार्टी का औसत कार्यकर्ता वैसा जुड़ाव महसूस नही करता, जैसा सांसद होने के नाते होना चाहिए। इससे ज्यादा संवाद, समन्वय व सम्पर्क उसका राव उदय प्रताप से रहता था। वह स्वयम भी केडर के सम्पर्क में रहते थे। भाजपा के मोजूदा उम्मीदवार से पार्टी वर्कर्स का वो जुड़ाव नही बन पाया। वे बडे नेताओं के सम्पर्क में जरूर रहे लेकिन जमीनी वर्कर्स से दूरी कम नही कर पाए। जबकि 5 बरस का अध्यक्ष किसान मोर्चा का एक पूरा कार्यकाल पूर्ण हो गया। मोजूदा प्रत्याशी अपनी ” किरार केबिनेट” से बाहर निकल ही नही पाए और फिर टिकट ले आये। इससे उपजी निराशा भाजपा में चुनावी माहौल नही बना पा रही हैं।*